शेर दर-अस्ल हैं वही 'हसरत'
सुनते ही दिल में जो उतर जाएँ
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मानूस हो चला था तसल्ली से हाल-ए-दिल
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
रविश-ए-हुस्न-ए-मुराआत चली जाती है
नहीं आती तो याद उन की महीनों तक नहीं आती
हाइल थी बीच में जो रज़ाई तमाम शब
रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
रानाई-ए-ख़याल को ठहरा दिया गुनाह
तिरे दर्द से जिस को निस्बत नहीं है
मुझ को देखो मिरे मरने की तमन्ना देखो
उस ना-ख़ुदा के ज़ुल्म ओ सितम हाए क्या करूँ
वफ़ा तुझ से ऐ बेवफ़ा चाहता हूँ