रानाई-ए-ख़याल को ठहरा दिया गुनाह
वाइज़ भी किस क़दर है मज़ाक़-ए-सुख़न से दूर
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न सूरत कहीं शादमानी की देखी
क्या वो अब नादिम हैं अपने जौर की रूदाद से
ताबाँ जो नूर-ए-हुस्न ब-सिमा-ए-इश्क़ है
पैहम दिया प्याला-ए-मय बरमला दिया
हम क्या करें अगर न तिरी आरज़ू करें
कभी की थी जो अब वफ़ा कीजिएगा
तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आश्ना हो जाइए
बदल-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ से लाऊँ
मुझ को देखो मिरे मरने की तमन्ना देखो
ख़ंदा-ए-अहल-ए-जहाँ की मुझे पर्वा क्या है
आप को आता रहा मेरे सताने का ख़याल
वो चुप हो गए मुझ से क्या कहते कहते