आप को आता रहा मेरे सताने का ख़याल
सुल्ह से अच्छी रही मुझ को लड़ाई आप की
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शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी
वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं
बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा
छेड़ा है दस्त-ए-शौक़ ने मुझ से ख़फ़ा हैं वो
गुज़रे बहुत उस्ताद मगर रंग-ए-असर में
इक़रार है कि दिल से तुम्हें चाहते हैं हम
वाक़िफ़ हैं ख़ूब आप के तर्ज़-ए-जफ़ा से हम
ख़ू समझ में नहीं आती तिरे दीवानों की
नज़्ज़ारा-ए-पैहम का सिला मेरे लिए है
और भी हो गए बेगाना वो ग़फ़लत कर के
मुनहसिर वक़्त-ए-मुक़र्रर पे मुलाक़ात हुई
मिलते हैं इस अदा से कि गोया ख़फ़ा नहीं