शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द व-लेकिन 'हसरत'
'मीर' का शेवा-ए-गुफ़्तार कहाँ से लाऊँ
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उन को रुस्वा मुझे ख़राब न कर
देखने आए थे वो अपनी मोहब्बत का असर
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
कोशिशें हम ने कीं हज़ार मगर
जो वो नज़र बसर-ए-लुत्फ़ आम हो जाए
चाहत मिरी चाहत ही नहीं आप के नज़दीक
वाक़िफ़ हैं ख़ूब आप के तर्ज़-ए-जफ़ा से हम
बेकली से मुझे राहत होगी
न समझे दिल फ़रेब-ए-आरज़ू को
ग़म-ए-आरज़ू का 'हसरत' सबब और क्या बताऊँ
फिर और तग़ाफ़ुल का सबब क्या है ख़ुदाया
है वहाँ शान-ए-तग़ाफ़ुल को जफ़ा से भी गुरेज़