फिर और तग़ाफ़ुल का सबब क्या है ख़ुदाया
मैं याद न आऊँ उन्हें मुमकिन ही नहीं है
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ग़ुर्बत की सुब्ह में भी नहीं है वो रौशनी
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था
तिरे दर्द से जिस को निस्बत नहीं है
तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आश्ना हो जाइए
मानूस हो चला था तसल्ली से हाल-ए-दिल
शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द व-लेकिन 'हसरत'
क्या काम उन्हें पुर्सिश-ए-अरबाब-ए-वफ़ा से
आईने में वो देख रहे थे बहार-ए-हुस्न
क्या तुम को इलाज-ए-दिल-ए-शैदा नहीं आता
बदल-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ से लाऊँ
शेर दर-अस्ल हैं वही 'हसरत'
रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम