ग़ुर्बत की सुब्ह में भी नहीं है वो रौशनी
जो रौशनी कि शाम-ए-सवाद-ए-वतन में था
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वफ़ा तुझ से ऐ बेवफ़ा चाहता हूँ
क्या वो अब नादिम हैं अपने जौर की रूदाद से
शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द व-लेकिन 'हसरत'
उन को जो शुग़्ल-ए-नाज़ से फ़ुर्सत न हो सकी
हाइल थी बीच में जो रज़ाई तमाम शब
मानूस हो चला था तसल्ली से हाल-ए-दिल
भूल ही जाएँ हम को ये तो न हो
छेड़ नाहक़ न ऐ नसीम-ए-बहार
कोशिशें हम ने कीं हज़ार मगर
सभी कुछ हो चुका उन का हमारा क्या रहा 'हसरत'
नज़्ज़ारा-ए-पैहम का सिला मेरे लिए है
दिल को ख़याल-ए-यार ने मख़्मूर कर दिया