'हसरत' की भी क़ुबूल हो मथुरा में हाज़िरी
सुनते हैं आशिक़ों पे तुम्हारा करम है आज
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हाइल थी बीच में जो रज़ाई तमाम शब
आरज़ू तेरी बरक़रार रहे
है इंतिहा-ए-यास भी इक इब्तिदा-ए-शौक़
अपना सा शौक़ औरों में लाएँ कहाँ से हम
रानाई-ए-ख़याल को ठहरा दिया गुनाह
फ़ैज़-ए-मोहब्बत से है क़ैद-ए-मिहन
कैसे छुपाऊँ राज़-ए-ग़म दीदा-ए-तर को क्या करूँ
चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
बुत-ए-बे-दर्द का ग़म मोनिस-ए-हिज्राँ निकला
जो और कुछ हो तिरी दीद के सिवा मंज़ूर
देखा किए वो मस्त निगाहों से बार बार
मानूस हो चला था तसल्ली से हाल-ए-दिल