दरख़्त हाथ हिलाते थे रहनुमाई को
मुसाफिरों ने तो कुछ भी नहीं कहा मुझ से
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ख़्वाहिश हमारे ख़ून की लबरेज़ अब भी है
ख़ुद को जब भूल से जाते हैं तो यूँ लगता है
सब तमन्नाओं से ख़्वाबों से निकल आए हैं
फ़रार पा न सका कोई रास्ता मुझ से
जो लोग लौट के ख़ुद मेरे पास आए हैं
ख़िज़ाँ का क़र्ज़ तो इक इक दरख़्त पर है यहाँ
ये ख़ौफ़ कम है मुझे और चमको जब तक हो