इश्क़ को बार-ए-ज़िंदगी न कहो
इश्क़ को बार-ए-ज़िंदगी न कहो
बात इतनी भी बे-तुकी न कहो
दिल को जिस में हो फ़िक्र-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
उस तिजारत को आशिक़ी न कहो
कुछ तो मरने का हौसला दिखलाओ
सिर्फ़ जीने को ज़िंदगी न कहो
दिल-लगी के सिवा भी कुछ है इश्क़
इश्क़ को महज़ दिल-लगी न कहो
कुछ न कह कर भी अपने दिल की बात
यूँ ब-अंदाज़-ए-ख़ामुशी न कहो
सब कहो पर हमें ख़ुदा के लिए
अपने महफ़िल में अजनबी न कहो
जिस को कुछ आदमी का दर्द न हो
ऐसे ज़ालिम को आदमी न कहो
दिल को बख़्शे जो ज़िंदगी 'मंशा'
तुम तो उस ग़म को ग़म कभी न कहो
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