ख़यालों में भी अक्सर चौंक उठा हूँ
ख़ुदा जाने मैं क्या क्या सोचता हूँ
अजब हैरानियों का सामना है
कि जैसे मैं किसी का आइना हूँ
चटानों में खिला है फूल तन्हा
ये सच है मैं उसूलों में पला हूँ
ये वज़्अ एहतियात-अंदोह-गीं है
ख़ुद अपने आप से डरने लगा हूँ
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ख़ुद अपने आप को धोका दिया है
सुब्ह रंगीन-ओ-जवाँ शाम सुहानी माँगे
कभी साया तो कभी धूप का मंज़र बदले
ख़ामोशियों के गहरे समुंदर में डूब जाएँ
पास अपने बोरिया बिस्तर न था
दिल लरज़ रहा है क्यूँ इस के ख़त को पा कर भी
लफ़्ज़ों में कैसा रंग-ए-मआ'नी दिखाई दे
नामा-ए-गुल में किसी शोख़ की तहरीर का रंग
सुख़न सुख़न जो किसी कर्ब से इबारत था
वक़्त के चेहरे पे चढ़ती धूप का ग़ाज़ा लगा
फ़रेब-ए-हुस्न नज़र का दिखाई देता है