मसर्रतों ने तो चाहा था दिल में आ जाएँ
हुजूम-ए-ग़म ने मगर उन को रास्ता न दिया
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नज़रों की ज़िद से यूँ तो मैं ग़ाफ़िल नहीं रहा
वो सुन सकें कोई उनवाँ इसी लिए हम ने
ताब-ए-नज़र से उन को परेशाँ किए हुए
मोहब्बत में सहर ऐ दिल बराए नाम आती है
तिरी बर्क़-पाश-निगाह से तिरे हश्र-ख़ेज़-ख़िराम से
दिल बेताब-ए-मर्ग-ए-ना-गहाँ बाक़ी न रह जाए
हौसला दिल का हवादिस में बढ़ा रक्खा है
मेरी नज़र नज़र में हैं मंज़र जले हुए
तेरी चश्म-ए-सितम-ईजाद से डर लगता है
सोज़-ओ-गुदाज़-ए-इश्क़ का चर्चा न कर सके
सितम में भी शान-ए-करम देखते हैं