देखा उसे तो आँख से आँसू निकल पड़े
दरिया अगरचे ख़ुश्क था पानी तहों में था
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कह रही है ये क्या सबा कुछ सोच
रूह-ए-एहसास है तही-दामन
इस तवक़्क़ो पे खुला रक्खा गरेबाँ अपना
जानिब-ए-दश्त कभी तुम भी निकल कर देखो
वो मिरे ग़म का मुदावा नहीं होने देता
एहसास के शरर को हुआ देने आऊँगा
फूल सहरा में खिला दे कोई
भला कब तक कोई तन्हा रहेगा
कोई सन्नाटा सा सन्नाटा है
जो मेरी आख़िरी ख़्वाहिश की तर्जुमाँ ठहरी
कभी भूले से मुमकिन हो मिरी जानिब अगर होना