हाँ ये ख़ता हुई थी कि हम उठ के चल दिए
तुम ने भी तो पलट के पुकारा नहीं हमें
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देखा उसे तो आँख से आँसू निकल पड़े
मैं बे-हुनर था मगर सोहबत-ए-हुनर में रहा
रात सुनसान है गली ख़ामोश
मिसाल-ए-सादा-वरक़ था मगर किताब में था
जानिब-ए-दश्त कभी तुम भी निकल कर देखो
तुम तो औरों पे न पत्थर फेंको
वो एक शख़्स कि जिस से शिकायतें थीं बहुत
वो भी क्या दिन थे कि जब इश्क़ किया करते थे
इक बे-वफ़ा से अहद-ए-वफ़ा कर के आए हैं
जो मेरी आख़िरी ख़्वाहिश की तर्जुमाँ ठहरी
थोड़ा सा मुस्कुरा के निगाहें मिलाइए