कोई सन्नाटा सा सन्नाटा है
काश तूफ़ान उठा दे कोई
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एहसास के शरर को हुआ देने आऊँगा
जो मेरी आख़िरी ख़्वाहिश की तर्जुमाँ ठहरी
दयार-ए-शौक़ में कोसों कहीं हवा भी नहीं
आँखों में चुभ रही है गुज़रती रुतों की धूप
तुम तो औरों पे न पत्थर फेंको
कभी भूले से मुमकिन हो मिरी जानिब अगर होना
वो रोब-ए-हुस्न था उस का सलाम भूल गया
बुझी है आग मगर इस क़दर ज़ियादा नहीं
वो भी क्या दिन थे कि जब इश्क़ किया करते थे
वो एक शख़्स कि जिस से शिकायतें थीं बहुत
थोड़ा सा मुस्कुरा के निगाहें मिलाइए
शौक़-ए-दिल-ए-वारफ़्ता का इक सैद-ए-ज़बूँ हूँ!