किया है उस ने हर इक से विसाल का वादा
इस इश्तियाक़ में मरना ज़रूरी होता है
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नुज़ूल-ए-वहइ
यूँ तो न तेरे जिस्म में हैं ज़ीनहार हाथ
नदामत है बना कर इस चमन में आशियाँ मुझ को
सहर को उठते हैं वो देख कर कफ़-ए-रंगीं
हँसी में वो बात मैं ने कह दी कि रह गए आप दंग हो कर
शिरकत-ए-महफ़िल
नज़र कहीं नहीं अब आते हज़रत-ए-नासेह
जोश-ए-गुल
उड़ा कर काग शीशे से मय-ए-गुल-गूँ निकलती है
पुर्सिश जो होगी तुझ से जल्लाद क्या करेगा
इस महीना भर कहाँ था साक़िया अच्छी तरह
दिल इस तरह हवा-ए-मोहब्बत में जल गया