लोटते रहते हैं मुझ पर चाहने वालों के दिल
वर्ना यूँ पोशाक तेरी मल्गजी होती नहीं
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दिल इस तरह हवा-ए-मोहब्बत में जल गया
किया है उस ने हर इक से विसाल का वादा
यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़
अपनी दुनिया तो बना ली थी रिया-कारों ने
ये आह-ए-बे-असर क्या हो ये नख़्ल-ए-बे-समर क्या हो
काबा ओ बुत-ख़ाना आरिफ़ की नज़र से देखिए
सुब्हा है ज़ुन्नार क्यूँ कैसी कही
किसी से बस कि उमीद-ए-कुशूद-ए-कार नहीं
उड़ के जाती है मिरी ख़ाक इधर गाह उधर
तू ने तो अपने दर से मुझ को उठा दिया है
बिछड़ के तुझ से मुझे है उमीद मिलने की