मिरी बातों में क्या मालूम कब सोए वो कब जागे
सिरे से इस लिए कहनी पड़ी फिर दास्ताँ मुझ को
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यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़
बिछड़ के तुझ से मुझे है उमीद मिलने की
यूँ तो न तेरे जिस्म में हैं ज़ीनहार हाथ
तू ने तो अपने दर से मुझ को उठा दिया है
दिल इस तरह हवा-ए-मोहब्बत में जल गया
जो अहल-ए-दिल हैं अलग हैं वो अहल-ए-ज़ाहिर से
साक़ी नामा
कोई मय दे या न दे हम रिंद-ए-बे-पर्वा हैं आप
जोश-ए-गुल
ये दिल की बे-क़रारी ख़ाक हो कर भी न जाएगी
बिदअ'त मस्नून हो गई है