तू ने तो अपने दर से मुझ को उठा दिया है
परछाईं फिर रही है मेरी उसी गली में
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इस वास्ते अदम की मंज़िल को ढूँडते हैं
गोर-ए-ग़रीबाँ
नज़र कहीं नहीं अब आते हज़रत-ए-नासेह
उड़ के जाती है मिरी ख़ाक इधर गाह उधर
क्या कारवान-ए-हस्ती गुज़रा रवा-रवी में
मुझ को समझो यादगार-ए-रफ़्तगान-ए-लखनऊ
दिल इस तरह हवा-ए-मोहब्बत में जल गया
आ गया फिर रमज़ाँ क्या होगा
इस महीना भर कहाँ था साक़िया अच्छी तरह
नदामत है बना कर इस चमन में आशियाँ मुझ को
बिदअ'त मस्नून हो गई है
यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़