उड़ के जाती है मिरी ख़ाक इधर गाह उधर
कुछ पता दे न गई उम्र-ए-गुरेज़ाँ अपना
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जुनूँ के वलवले जब घुट गए दिल में निहाँ हो कर
यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़
अपनी दुनिया तो बना ली थी रिया-कारों ने
नशा में सूझती है मुझे दूर दूर की
सुब्हा है ज़ुन्नार क्यूँ कैसी कही
क्या कारवान-ए-हस्ती गुज़रा रवा-रवी में
बिछड़ के तुझ से मुझे है उमीद मिलने की
यूँ तो न तेरे जिस्म में हैं ज़ीनहार हाथ
तू ने तो अपने दर से मुझ को उठा दिया है
जोश-ए-गुल
जो अहल-ए-दिल हैं अलग हैं वो अहल-ए-ज़ाहिर से