उड़ाई ख़ाक जिस सहरा में तेरे वास्ते मैं ने
थका-माँदा मिला इन मंज़िलों में आसमाँ मुझ को
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जुनूँ के वलवले जब घुट गए दिल में निहाँ हो कर
नशा में सूझती है मुझे दूर दूर की
शिरकत-ए-महफ़िल
एहसान ले न हिम्मत-ए-मर्दाना छोड़ कर
रोज़-ए-सियह में साथ कोई दे तो जानिए
यूँ तो न तेरे जिस्म में हैं ज़ीनहार हाथ
क्या कारवान-ए-हस्ती गुज़रा रवा-रवी में
अबस है नाज़-ए-इस्तिग़्ना पे कल की क्या ख़बर क्या हो
आ के मुझ तक कश्ती-ए-मय साक़िया उल्टी फिरी
गोर-ए-ग़रीबाँ
आ गया फिर रमज़ाँ क्या होगा
ये दिल की बे-क़रारी ख़ाक हो कर भी न जाएगी