ये दिल की बे-क़रारी ख़ाक हो कर भी न जाएगी
सुनाती है लब-ए-साहिल से ये रेग-ए-रवाँ मुझ को
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एहसान ले न हिम्मत-ए-मर्दाना छोड़ कर
यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़
किस लिए फिरते हैं ये शम्स ओ क़मर दोनों साथ
जो अहल-ए-दिल हैं अलग हैं वो अहल-ए-ज़ाहिर से
पुर्सिश जो होगी तुझ से जल्लाद क्या करेगा
मुझ को समझो यादगार-ए-रफ़्तगान-ए-लखनऊ
काबा ओ बुत-ख़ाना आरिफ़ की नज़र से देखिए
तन्हा नहीं हूँ गर दिल-ए-दीवाना साथ है
यूँ तो न तेरे जिस्म में हैं ज़ीनहार हाथ
दर्द-ए-दिल से इश्क़ के बे-पर्दगी होती नहीं
लोटते रहते हैं मुझ पर चाहने वालों के दिल
तू ने तो अपने दर से मुझ को उठा दिया है