यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़
हाथ जिस तरह से आता है गरेबाँ की तरफ़
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कोई मय दे या न दे हम रिंद-ए-बे-पर्वा हैं आप
किसी से बस कि उमीद-ए-कुशूद-ए-कार नहीं
ये हुआ मआल हुबाब का जो हवा में भर के उभर गया
किया है उस ने हर इक से विसाल का वादा
आ गया फिर रमज़ाँ क्या होगा
उड़ के जाती है मिरी ख़ाक इधर गाह उधर
फिरी हुई मिरी आँखें हैं तेग़-ज़न की तरफ़
दर्द-ए-दिल से इश्क़ के बे-पर्दगी होती नहीं
तन्हा नहीं हूँ गर दिल-ए-दीवाना साथ है
ये दिल की बे-क़रारी ख़ाक हो कर भी न जाएगी
इस महीना भर कहाँ था साक़िया अच्छी तरह
हँसी में वो बात मैं ने कह दी कि रह गए आप दंग हो कर