दर्द-ए-दिल से इश्क़ के बे-पर्दगी होती नहीं
इक चमक उठती है लेकिन रौशनी होती नहीं
Mir Taqi Mir
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उड़ा कर काग शीशे से मय-ए-गुल-गूँ निकलती है
बिदअ'त मस्नून हो गई है
जुनूँ के वलवले जब घुट गए दिल में निहाँ हो कर
यूँ तो न तेरे जिस्म में हैं ज़ीनहार हाथ
जो अहल-ए-दिल हैं अलग हैं वो अहल-ए-ज़ाहिर से
संग-ए-जफ़ा का ग़म नहीं दस्त-ए-तलब का डर नहीं
असीरी में बहार आई है फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ कर लें
साक़ी नामा
यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़
हँसी में वो बात मैं ने कह दी कि रह गए आप दंग हो कर
शिरकत-ए-महफ़िल
मिरी बातों में क्या मालूम कब सोए वो कब जागे