विदा-ए-रोज़-ए-रौशन है गजर शाम-ए-ग़रीबाँ का
चरा-गाहों से पलटे क़ाफ़िले वो बे-ज़बानों के
क़दम घर की तरफ़ किस शौक़ से उठता है दहक़ाँ का
ये वीराना है मैं हूँ और ताइर आशियानों के
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जोश-ए-गुल
नशा में सूझती है मुझे दूर दूर की
मिरी बातों में क्या मालूम कब सोए वो कब जागे
इस महीना भर कहाँ था साक़िया अच्छी तरह
किस लिए फिरते हैं ये शम्स ओ क़मर दोनों साथ
आ गया फिर रमज़ाँ क्या होगा
अबस है नाज़-ए-इस्तिग़्ना पे कल की क्या ख़बर क्या हो
गोर-ए-ग़रीबाँ
नज़र कहीं नहीं अब आते हज़रत-ए-नासेह
तन्हा नहीं हूँ गर दिल-ए-दीवाना साथ है
दर्द-ए-दिल से इश्क़ के बे-पर्दगी होती नहीं
यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़