रोज़-ए-सियह में साथ कोई दे तो जानिए
जब तक फ़रोग़-ए-शम्अ है परवाना साथ है
Allama Iqbal
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किसी से बस कि उमीद-ए-कुशूद-ए-कार नहीं
ये हुआ मआल हुबाब का जो हवा में भर के उभर गया
तू ने तो अपने दर से मुझ को उठा दिया है
जोश-ए-गुल
यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़
तन्हा नहीं हूँ गर दिल-ए-दीवाना साथ है
इस वास्ते अदम की मंज़िल को ढूँडते हैं
जुनूँ के वलवले जब घुट गए दिल में निहाँ हो कर
साक़ी नामा
अपनी दुनिया तो बना ली थी रिया-कारों ने
एहसान ले न हिम्मत-ए-मर्दाना छोड़ कर