शाख़ शाख़ पर मौसम-ए-गुल ने गजरे से लटकाए थे
शाख़ शाख़ पर मौसम-ए-गुल ने गजरे से लटकाए थे
मैं ने जिस-दम हाथ बढ़ाया सारे फूल पराए थे
कितने दर्द चमक उठते हैं फ़ुर्क़त के सन्नाटे में
रात रात-भर जाग के हम ने ख़ुद पे ज़ख़्म लगाए थे
तेरे ग़मों का ज़िक्र ही क्या अब जाने दे ये बात न छेड़
हम दीवाने मुल्क-ए-जुनूँ में बख़्त-ए-सिकंदर लाए थे
दिल की वीराँ बस्ती मुझ से अक्सर पूछा करती है
बस्ते हैं किस देस में अब वो लोग यहाँ जो आए थे
पिछली रात को तारे अब भी झिलमिल करते हैं
किस को ख़बर है इक शब हम ने कितने अश्क बहाए थे
आज जहाँ की तारीकी से दुनिया बच कर चलती है
हम ने उस वीरान महल में लाखों दीप जलाए थे
मुझ को उन से प्यार नहीं है मुझ को उन के नाम से क्या
आँखें यूँ ही भर आई थीं होंट यूँही थर्राए थे
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