तमाम रात हवा चीख़ती रही बन में
तमाम रात हवा चीख़ती रही बन में
तमाम रात उड़ी ख़ाक दिल के आँगन में
है अक़्ल ज़हर जुनूँ ज़हर-ए-अक़्ल का तिरयाक
ये राज़ खुल ही गया हम पे बावले-पन में
ये जुगनुओं की चिताएँ ये सोगवार फ़ज़ा
सुलग उठे हैं शरारे नज़र के दामन में
सहर हुई तो बगूलों का रक़्स देखेंगे
ख़िज़ाँ ने हम को बुलाया है सेहन-ए-गुलशन में
मैं उस से भाग के जाऊँ भी तो कहाँ जाऊँ
छुपा हुआ है कोई रोज़-ओ-शब की चिलमन में
उठाऊँ तेशा-ए-फ़र्हाद बे-सुतूँ काटूँ
ये आरज़ू तो जवाँ थी मिरे लड़कपन में
मैं दिल की आग को ग़ज़लों का रूप देता हूँ
नहीं हरीफ़ किसी का मैं शे'र के फ़न में
(450) Peoples Rate This