इसी फ़लक से उतरता है ये अंधेरा भी
ये रौशनी भी इसी आसमाँ से आती है
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पहले चिंगारी से इक शोला बनाता है मुझे
ये आँखें ये दिमाग़ ये ज़ख़्मों का घर बदन
हवा-ए-शाम न जाने कहाँ से आती है
ज़िंदगी इक ख़्वाब है ये ख़्वाब की ताबीर है
इस शहर-ए-तिश्नगी में कहीं आब के सिवा
शाम होती है तो मेरा ही फ़साना अक्सर
ये किस का चेहरा दमकता है मेरी आँखों में