पत-झड़

ये रक़्स-ए-आफ़रीनश है कि शोर-ए-मर्ग है ऐ दिल

हवा कुछ इस तरह पेड़ों से मिल मिल कर गुज़रती है

कि जैसे आख़िरी बोसा हो ये पहली मोहब्बत भी

हर इक सू मर्ग-आरा है अदम-अंगेज़ी-ए-फ़ितरत

मगर शायद निगाहों में अभी कुछ ज़ौक़ बाक़ी है

कि मैं इस कर्ब में भी कैफ़ पाता हूँ

जहाँ तक देख पाता हूँ ज़मीं पर ताबिश-ए-ज़र है

फ़ज़ा-ए-नील-गूँ में बर्ग-अफ़्शानी से मंज़र है

मैं इन रंगीनियों में डूब जाता हूँ

मुझे हर हुस्न गोया एक दर्स-ए-शादमानी है

कि इस तकमील में वो दिलकशी है वो जवानी है

कि फिर बर्बादी-ए-बाद-ए-ख़िज़ाँ का ग़म नहीं रहता

मिरी तारीक फ़ितरत में भी इक तक़्दीस का शोअ'ला

किसी कैफ़-ए-दरूँ से फूट जाता है

कोई इक क़ब्र पर जैसे दिया रख दे

ये आईन-ए-गुल-अफ़रोज़ी भी कितना रूह-परवर है

हरीरी कोंपलों से ज़र्दगूँ पतझड़ के पत्तों तक

मुझे इक इर्तिक़ा-ए-हुस्न मिलता है

मगर दौर-ए-ज़माँ से आह मैं पामाल-ओ-अफ़्सुर्दा

कहीं बैठा हुआ गुज़रे दिनों को याद करता हूँ

अभी परछाइयाँ कुछ अहद-ए-रफ़्ता की

मिरी आँखों में हैं लर्ज़ां

मिरी तस्वीर बचपन की

अभी तक गोश-ए-दीवार में है वो भी आवेज़ां

मैं पहरों देखता रहता हूँ इस तस्वीर को लेकिन

यक़ीं मुझ को नहीं आता कि ये मेरा ही परतव है

हर इक शय अजनबी सी ग़ैर सी महसूस होती है

न कोई इज़्तिराब-ए-दिल न कोई काहिश-ए-दरमाँ

न ज़ेर-ए-लब भी कोई तल्ख़ी-ए-अय्याम का शिकवा

न उन की याद जो अब ज़िक्र भी मेरा नहीं करते

जो शायद अब मुझे तक़वीम-ए-पारीना समझते हैं

मैं डरता हूँ कि इस दुनिया में कोई भी नहीं मेरा

जो चाहूँ भी तो किस को दास्तान-ए-ग़म सुनाऊँगा

वो रंज-ए-तह-नशीं है जो बयाँ हो ही नहीं सकता

वो बाद-ए-सर्द की बे-मेहर तेज़ी है

कि ख़ून-ए-दिल भी अब कुछ मुंजमिद मालूम होता है

न वो शोरीदगी बाक़ी न अब वो शोर-ए-गिर्या है

मिरे दाग़-ए-जिगर से वो तराविश भी नहीं होती

मिरी रानाइयाँ मुझ से गुरेज़ाँ हैं

वो मेरी फ़ितरत-ए-मासूम वो मेरी जिगर-सोज़ी

वो मेरी दर्द-मंदी वो ख़मोशी वो कम-आमेज़ी

वो अश्कों की दिल-आवेज़ी

हर इक शय माइल-ए-परवाज़ हो जैसे

मुझे इस का बहुत ग़म है

अभी तक इस ज़वाल-ए-दिलबरी का दिल को मातम है

मैं हैराँ हूँ कि क्या यज़्दाँ भी कोई तिफ़्ल-ए-मकतब है

कि जो यूँ खेल कर पर नोच लेता है पतंगों के

वो कैसी सूरतें होंगी जो ज़ेर-ए-ख़ाक पिन्हाँ हैं

मगर वो लोग जो मिटने से पहले माँद पड़ जाएँ

वो जिन की गुफ़्तुगू भी एक सरगोशी सी बन जाए

वो अफ़्सुर्दा पशेमाँ मुज़्महिल मायूस आए जो

फ़रामोशी की मंज़िल की तरफ़ चुपके से बढ़ते हैं

भला उन की तलाफ़ी वादा-ए-रंगीं से क्या होगी

ख़ुदा-ए-दो-जहाँ है तू भी कितना शोख़-ओ-बे-परवा

बहुत मैं ने भी की हैं दीदा-ए-पुर-ख़ूँ की तफ़्सीरें

मगर ये दामन-ए-तर क्या करूँ गुलशन नहीं बनता

यही वो सरज़मीं वो इंतिहा-ए-फ़िक्र-ए-यज़्दाँ है

कि जिस में ख़ाक-ओ-ख़ूँ का हर घड़ी इक खेल होता है

मगर फिर भी वही बे-रंगी-ए-तिमसाल-ए-आलम है

कहाँ वो मंज़िल-ए-जाँ है कहाँ है ख़ात्मा आख़िर

ये मुमकिन है न कोई ख़ात्मा इस रह-गुज़र का हो

मैं ख़ैर-ओ-शर के फ़र्सूदा तसव्वुर में अभी गुम हूँ

नहीं मालूम कोई मुंतहा-ए-ज़िंदगी भी है

कि जुज़ इक नाला-ए-गर्दिश नहीं सरमाया-ए-आलम

कहीं वो बाग़-ए-रिज़वाँ भी न इक हुस्न-ए-तबीअ'त हो

जिसे गर्दूं समझता हूँ वो इक मौहूम वुसअत हो

नहीं मैं महरम-ए-राज़-ए-दरून-ए-मय-कदा लेकिन

यही महसूस होता है कि हर शय कुछ दिगर-गूँ है

दिल-ए-फ़ितरत में है शायद तमन्ना-ए-जहान-ए-नौ

मगर जैसे उरूस-ए-ज़िंदगी कहती हो हँस हँस कर

कि आलम इक बहार-ए-सुर्ख़ी-ए-ख़ून-ए-शहीदाँ है

ये महर-ओ-माह ओ परवीं ये ज़मीं ये लाला-ओ-नस्रीं

ये फ़ानूस-ए-ख़ाली लड़खड़ा कर टूट जाएगा

ये दुनिया ख़्वाब की झूटी कहानी है

मैं इस रंगीनी-ए-औराक़ से दिल-शाद क्या हूँगा

मिरे दिल में नहीं अब आरज़ू-ए-ख़ुल्द भी बाक़ी

मुझे ये रौशनी ये आसमाँ की बे-कराँ वुसअत

कोई दर्स-ए-तमाशा अब नहीं देती

मिरे हुए सफ़ेद-ओ-सीम का आह ये मंज़र

फ़रेब-ए-दीद है मेरा कफ़न होगा

मिरी इस ख़ाक में अब गर्मी-ए-तामीर क्या होगी

वो दुनिया मिट चुकी अब इस के मिटने का नहीं कुछ ग़म

ये मर्ग-ए-ना-गहाँ अपना नसीबा था

मगर इक तीर जैसे आज भी पैवस्त हो दिल में

कि वो रानाई-ए-आईन-ए-बर्ग-ए-गुल नहीं मुझ में

मिरी शाम-ए-ख़िज़ाँ क्यूँ इतनी वीराँ है?

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In Hindi By Famous Poet Obaidur Rahman Azmi. is written by Obaidur Rahman Azmi. Complete Poem in Hindi by Obaidur Rahman Azmi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.