अजीब है
दश्त-ए-आगही का सफ़र
वफ़ा की रिदा में लिपटी
बरहना क़दमों से चल रही हूँ
तपे हुए रेगज़ार में भी
मगर चुभन है न पाँव में कोई आबला है
थकन का नाम-ओ-निशाँ नहीं है
Faiz Ahmad Faiz
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उठी थीं आँधियाँ जिन को बुझाने
इक इक को इताब बाँटते हो
ब-ज़ाहिर ये जो बेगाने बहुत हैं
काश तूफ़ाँ में सफ़ीने को उतारा होता
सँवारे आख़िरत या ज़िंदगी को
कहाँ है शोरीदा-सर मुसाफ़िर
जब बाँटना ही अज़ाब ठहरा
अहल-ए-ग़म आओ ज़रा सैर-ए-गुलिस्ताँ कर लें
क्या ग़ज़ब तू ने ऐ बहार किया
कहाँ जा रही हो?
खुल के रो लूँ तो ज़रा जी सँभले
ख़ुद को जब तेरे मुक़ाबिल पाया