वो जिस की आँखों में रत-जगों की बसीरतें हैं
वो मिशअल-ए-जाँ से दश्त की ज़ुल्मतों में
रस्ते बना रहा है
वो जिस के तन में हज़ारों मेख़ें गड़ी हुई हैं
कहाँ है शोरीदा-सर मुसाफ़िर
कि आज ख़ल्क़ उस को ढूँडती है
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इक इक को इताब बाँटते हो
मेरी आँखों में उतरने वाले
सँवारे आख़िरत या ज़िंदगी को
बसारत
दम-ब-ख़ुद गुलशनों की रानाई
हर सम्त सुकूत बोलता है
सोचते हैं तो कर गुज़रते हैं
अहल-ए-ग़म आओ ज़रा सैर-ए-गुलिस्ताँ कर लें
तेरी पहचान के लाखों अंदाज़
ब-ज़ाहिर ये जो बेगाने बहुत हैं
दश्त मेरी ही दुहाई देगा