दश्त मेरी ही दुहाई देगा
फिर मुझे आबला-पाई देगा
रौशनी रूह तलक आ पहुँची
अब अंधेरे में दिखाई देगा
ज़र्द पत्तों का धड़कता हुआ दिल
ख़ामुशी में भी सुनाई देगा
तोड़ कर देख तू आईना-ए-दिल
शहर का शहर दिखाई देगा
कश्फ़ ओ आगाही के आईने में
अपना बहरूप दिखाई देगा
Habib Jalib
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खुल के रो लूँ तो ज़रा जी सँभले
तेरी पहचान के लाखों अंदाज़
तुझ को अब कोई शिकायत तो नहीं
ख़ुद को जब तेरे मुक़ाबिल पाया
पुल-सिरात
इक इक को इताब बाँटते हो
सँवारे आख़िरत या ज़िंदगी को
जब बाँटना ही अज़ाब ठहरा
बसारत
काश तूफ़ाँ में सफ़ीने को उतारा होता
चोट नई है लेकिन ज़ख़्म पुराना है
वक़्त