तुम्हारा दिल
तजल्लियों के तूर की ज़िया से
आगही तलक
रियाज़तों के नूर में गुँधा हुआ
अमानतों के बार से दबा हुआ
तुम्हारी रूह के लतीफ़ आईने में
अपना अक्स ढूँडने
अक़ीदतों की गर्द से अटी हुई
अना के पुल-सिरात से गुज़र के आ रही हूँ मैं
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खुल के रो लूँ तो ज़रा जी सँभले
अहल-ए-ग़म आओ ज़रा सैर-ए-गुलिस्ताँ कर लें
काश तूफ़ाँ में सफ़ीने को उतारा होता
तुझ को अब कोई शिकायत तो नहीं
वक़्त
जिधर नज़रें उठाएँ तीरगी है
चोट नई है लेकिन ज़ख़्म पुराना है
सफ़र-ए-आगही
क्या ग़ज़ब तू ने ऐ बहार किया
जब बाँटना ही अज़ाब ठहरा
सँवारे आख़िरत या ज़िंदगी को
पुल-सिरात