अगर ये सच है
तो लोग क्या सिर्फ़ एक ही सच को मानते हैं
ये सच अगर ज़ाविया नहीं है निगाह का तो बताओ क्या है
कि मैं खड़ा हूँ जहाँ वहाँ से
तुम्हारे चेहरे का एक ही रुख़
अयाँ है
जैसे
तुम आधे चेहरे के आदमी हो
तो फिर बताओ कि झूट क्या है
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रात के साए
ख़ुद-एहतसाबी
ये बे-नवाई हमारी सौदा-ए-सर है घर में बसा दिया है
आइने से मुकर गया कोई
ख़याल की तरह चुप हो सदा हुए होते
अजीब जुम्बिश-ए-लब है ख़िताब भी न करे
मालूम है वो मुझ से ख़फ़ा है भी नहीं भी
सुब्ह-ए-क़यामत जिन होंटों पे दिलासे देखे
समझ रहा है तिरी हर ख़ता का हामी मुझे
आबला
बेबसी
अज़्म-ए-बुलंद जो दिल-ए-बेबाक में रहा