हमें न रास ज़माने की महफ़िलें आई
चलो कि छोड़ के अब इस जहाँ को चलते हैं
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यूँ तो इक उम्र साथ साथ हुई
तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है
ज़ुल्फ़ लहरा के फ़ज़ा पहले मोअत्तर कर दे
इक न इक रोज़ रिफ़ाक़त में बदल जाएगी
कौन आएगा भूल कर रस्ता
रस्म-ए-दुनिया तो किसी तौर निभाते जाओ
चलो कि हम भी ज़माने के साथ चलते हैं
दिल के कहने पर चल निकला
शेर में साथ रवानी के मआनी भी तो भर
वो तो ख़ुश्बू है हर इक सम्त बिखरना है उसे