इक न इक रोज़ रिफ़ाक़त में बदल जाएगी
दुश्मनी को भी सलीक़े से निभाते जाओ
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तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है
कौन आएगा भूल कर रस्ता
अपनी उर्दू तो मोहब्बत की ज़बाँ थी प्यारे
वक़्त के साथ 'सदा' बदले तअल्लुक़ कितने
नींद आई ही नहीं हम को न पूछो कब से
वो तो ख़ुश्बू है हर इक सम्त बिखरना है उसे
उन्हें न तोलिये तहज़ीब के तराज़ू में
दिल को समझा लें अभी से तो मुनासिब होगा
क्यूँ ये हसरत थी दिल लगाने की
हमें न रास ज़माने की महफ़िलें आई
दिखाएगी असर दिल की पुकार आहिस्ता आहिस्ता
न ज़िक्र गुल का कहीं है न माहताब का है