वो तो ख़ुश्बू है हर इक सम्त बिखरना है उसे
दिल को क्यूँ ज़िद है कि आग़ोश में भरना है उसे
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दे गया ख़ूब सज़ा मुझ को कोई कर के मुआफ़
हमें न रास ज़माने की महफ़िलें आई
न ज़िक्र गुल का कहीं है न माहताब का है
अपनी उर्दू तो मोहब्बत की ज़बाँ थी प्यारे
वक़्त के साथ 'सदा' बदले तअल्लुक़ कितने
लाख तक़दीर पे रोए कोई रोने वाला
दिल को समझा लें अभी से तो मुनासिब होगा
अब कहाँ दोस्त मिलें साथ निभाने वाले
मंज़र-ए-रुख़्सत-ए-दिलदार भुलाया न गया
रस्म-ए-दुनिया तो किसी तौर निभाते जाओ