बयान-ए-लग़्ज़िश-ए-आदम न कर कि वो फ़ित्ना
मिरी ज़मीं से नहीं तेरे आसमाँ से उठा
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दोहराऊँ क्या फ़साना-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल को
असनाम-ए-माल-ओ-ज़र की परस्तिश सिखा गई
'सहबा' साहब दरिया हो तो दरिया जैसी बात करो
ख़ुद को शरर शुमार किया और जल बुझे
जिसे लिख लिख के ख़ुद भी रो पड़ा हूँ
हर रात का ख़्वाब
फ़र्द-ए-इसयाँ को वो सियाही दे
सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा
मुझ पे ऐसा कोई शे'र नाज़िल न हो
साँप सपेरा और मैं