अगर शुऊर न हो तो बहिश्त है दुनिया
बड़े अज़ाब में गुज़री है आगही के साथ
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शायद वो संग-दिल हो कभी माइल-ए-करम
पागल औरत
दिल के उजड़े नगर को कर आबाद
सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा
मैं बहारों के रूप में गुम था
तुम ने कहा था चुप रहना सो चुप ने भी क्या काम किया
दोहराऊँ क्या फ़साना-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल को
गूँज मिरे गम्भीर ख़यालों की मुझ से टकराती है
मेरे सुख़न की दाद भी उस को ही दीजिए
हर रात का ख़्वाब
मुझे मिला वो बहारों की सरख़ुशी के साथ
साँप सपेरा और मैं