हर-चंद मिरी क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार है महबूस
ख़ामोश मगर तब-ए-ख़ुद-आरा नहीं होती
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नहीं किया तो कर के देख
शुआ-ए-फ़र्दा
अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
नाकामी
तुम मेरे लिए अब कोई इल्ज़ाम न ढूँडो
फिर वही कुंज-ए-क़फ़स
ये महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया
अपना दिल पेश करूँ अपनी वफ़ा पेश करूँ
लम्ह-ए-ग़नीामत
मैं पल दो पल का शाइ'र हूँ
तुम्हारे अहद-ए-वफ़ा को मैं अहद क्या समझूँ