ग़म-ए-उम्र-ए-मुख़्तसर से अभी बे-ख़बर हैं कलियाँ
न चमन में फेंक देना किसी फूल को मसल कर
Wasi Shah
Gulzar
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वज्ह-ए-क़द्र-ओ-क़ीमत-ए-दिल हुस्न की तनवीर है
दूर हैं वो और कितनी दूर
सुब्ह का अफ़्साना कह कर शाम से
तिरे बग़ैर अजब बज़्म-ए-दिल का आलम है
कितनी दिल-कश हैं तिरी तस्वीर की रानाइयाँ
ऐ इश्क़ ये सब दुनिया वाले बे-कार की बातें करते हैं
मुझे तो क़ैद-ए-मोहब्बत अज़ीज़ थी लेकिन
क़स्र वीरान हुआ जाता है
रह वफ़ा में कोई साहिब-ए-जुनूँ न मिला
न सोचा था ये दिल लगाने से पहले
वो हवा दे रहे हैं दामन की
ग़म से कहाँ ऐ इश्क़ मफ़र है