कुछ सुर्ख़ जो है रंग मिरे अश्क-ए-रवाँ का
शायद कोई टूटा दिल-ए-मजरूह का टाँका
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पहुँचा है आज क़ैस का याँ सिलसिला मुझे
यूसुफ़ ही ज़र-ख़रीदों में फ़िरोज़-बख़्त था
मेहरबाँ पाते नहीं तेरे तईं यक आन हम
क़िस्सा तो ज़ुल्फ़-ए-यार का तूल ओ तवील है
आलम में हुस्न तेरा मशहूर जानते हैं
किस रोज़ इलाही वो मिरा यार मिलेगा
दियत इस क़ातिल-ए-बे-रहम से क्या लीजिएगा
गुंजाइश-ए-दो-शाह नहीं एक मुल्क में
दिल के आईने में नित जल्वा-कुनाँ रहता है