राजसी Poetry (page 1)

चाँद-तारों ने कोई शय तो छुपाई हुई है

रश्मि सबा

कोई शिकवा तो ज़ेर-ए-लब होगा

ए जी जोश

रोने वालों ने तिरे ग़म को सराहा ही नहीं

बिमल कृष्ण अश्क

हम ही ज़र्रे रुस्वाई से

ए जी जोश

बे-बसर आफ़ात से तकलीफ़ होती है मुझे

बशीर दादा

सुकूत-ए-शब

अज़हर क़ादिरी

ज़ाबता

हबीब जालिब

न शिकवा लब तक आएगा न नाला दिल से निकलेगा

अब्र-ए-आवारा से मुझ को है वफ़ा की उम्मीद

ज़िया जालंधरी

हम

ज़िया जालंधरी

अब ये आँखें किसी तस्कीन से ताबिंदा नहीं

ज़िया जालंधरी

न होगा हश्र महशर में बपा क्या

ज़ेबा

मुराद-ए-शिकवा नहीं लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू के सिवा

ज़ेब ग़ौरी

उम्र गुज़री है कामरानी से

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

लुत्फ़ जब आए शिकवा-संजी का

ज़हीर देहलवी

क्यूँ किसी से वफ़ा करे कोई

ज़हीर देहलवी

जहाँ में कौन कह सकता है तुम को बेवफ़ा तुम हो

ज़हीर देहलवी

साहिल पर दरिया की लहरें सज्दा करती रहती हैं

ज़फर इमाम

वो जिस की जुस्तुजू-ए-दीद में पथरा गईं आँखें

वासिफ़ देहलवी

उसे ज़िद कि 'वामिक़'-ए-शिकवा-गर किसी राज़ से न हो बा-ख़बर

वामिक़ जौनपुरी

मिरे फ़िक्र ओ फ़न को नई फ़ज़ा नए बाल-ओ-पर की तलाश है

वामिक़ जौनपुरी

जो हम ये तिफ़लों के संग-ए-जफ़ा के मारे हैं

वली उज़लत

बेजा है तिरी जफ़ा का शिकवा

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

मैं ने माना काम है नाला दिल-ए-नाशाद का

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

लूटा है मुझे उस की हर अदा ने

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

लबरेज़-ए-हक़ीक़त गो अफ़साना-ए-मूसा है

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

क्या है कि आज चलते हो कतरा के राह से

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

मुद्दत हुई है मदह-ए-हसीनाँ किए हुए

वहीदुद्दीन सलीम

मुद्दत हुई है मदह-ए-हसीनाँ किए हुए

वहीदुद्दीन सलीम

पत्थरों का मुग़न्नी

वहीद अख़्तर

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