उसे ज़िद कि 'वामिक़'-ए-शिकवा-गर किसी राज़ से न हो बा-ख़बर
मुझे नाज़ है कि ये दीदा-वर मिरी उम्र भर की तलाश है
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सरकशी ख़ुद-कशी पे ख़त्म हुई
वो लम्हा भर की मिली ख़ुल्द में जो आज़ादी
कहीं साक़ी का फ़ैज़-ए-आम भी है
ख़ूनी क़िला
अरे ओ अदीब-ए-फ़सुर्दा-ख़ू अरे ओ मुग़न्नी-ए-रंग ओ बू
इस दौर की तख़्लीक़ भी क्या शीशागरी है
हमारे मय-कदे का अब निज़ाम बदलेगा
वो वादे याद नहीं तिश्ना है मगर अब तक
शीशा उस का अजीब है ख़ुद ही
बर्क़ सर-ए-शाख़-सार देखिए कब तक रहे
न पूछो बेबसी उस तिश्ना-लब की
ज़बाँ तक जो न आए वो मोहब्बत और होती है