तबीअत की मुश्किल-पसंदी तो देखो
हसीनों से तर्क-ए-वफ़ा चाहता हूँ
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ज़ख़्म-ए-दिल हम दिखा नहीं सकते
एक जल्वे की हवस वो दम-ए-रेहलत भी नहीं
ख़ुदा से तिरा चाहना चाहता हूँ
मिलने वाले से राह पैदा कर
उसी के जल्वे थे लेकिन विसाल-ए-यार न था
ऐ जुनूँ फिर मिरे सर पर वही शामत आई
कुछ कहूँ कहना जो मेरा कीजिए
फिर मिज़ाज उस रिंद का क्यूँकर मिले
लब-ए-नाज़ुक के बोसे लूँ तो मिस्सी मुँह बनाती है
वो कहते हैं मैं ज़िंदगानी हूँ तेरी
न मेरे दिल न जिगर पर न दीदा-ए-तर पर
तिरे कूचे का रहनुमा चाहता हूँ