तिरे कूचे का रहनुमा चाहता हूँ

तिरे कूचे का रहनुमा चाहता हूँ

मगर ग़ैर का नक़्श-ए-पा चाहता हूँ

जहाँ तक हो तुझ से जफ़ा चाहता हूँ

कि मैं इम्तिहान-ए-वफ़ा चाहता हूँ

ख़ुदा से तिरा चाहना चाहता हूँ

मेरा चाहना देख क्या चाहता हूँ

कहाँ रंग-ए-वहदत कहाँ ज़ौक़-ए-वसलत

मैं अपने को तुझ से जुदा चाहता हूँ

बराबर रही हद्द-ए-यार-ओ-मोहब्बत

किसी को मैं बे-इंतिहा चाहता हूँ

कहाँ है तिरी बर्क़-ए-जोश-ए-तजल्ली

कि मैं साज़-ओ-बर्ग-ए-फ़ना चाहता हूँ

वो जब खो चुके मुझ को हस्ती से अपनी

तो कहते हैं अब मैं मिला चाहता हूँ

जुनून-ए-मोहब्बत में पंद-ए-अदू क्या

भला मैं किसी का बुरा चाहता हूँ

तबीअत की मुश्किल-पसंदी तो देखो

हसीनों से तर्क-ए-वफ़ा चाहता हूँ

जो दिल मैं ने चाहा तो क्या ख़ाक चाहा

कि दिल भी तो बे-मुद्दआ चाहता हूँ

ये हसरत की लज़्ज़त ये ज़ौक़-ए-तमन्ना

शब-ए-वस्ल उन से हया चाहता हूँ

सिवा इस के मैं क्या कहूँ तुम से 'आसी'

कि दरवेश हो तुम दुआ चाहता हूँ

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