जो उन्हें वफ़ा की सूझी तो न ज़ीस्त ने वफ़ा की
अभी आ के वो न बैठे कि हम उठ गए जहाँ से
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मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से
चराग़-ए-ज़िंदगी होगा फ़रोज़ाँ हम नहीं होंगे
ख़िरद में मुब्तिला है 'सालिक' दीवाना बरसों से
हाल-ए-दिल सुन के वो आज़ुर्दा हैं शायद उन को
इश्क़ है बे-गुदाज़ क्यूँ हुस्न है बे-नियाज़ क्यूँ
जो मुश्त-ए-ख़ाक हो उस ख़ाक-दाँ की बात करो
न मोहतसिब की न हूर-ओ-जिनाँ की बात करो
हमारे डूबने के बाद उभरेंगे नए तारे
नई शमएँ जलाओ आशिक़ी की अंजुमन वालो