नई शमएँ जलाओ आशिक़ी की अंजुमन वालो
कि सूना है शबिस्तान-ए-दिल-ए-परवाना बरसों से
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मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से
जो मुश्त-ए-ख़ाक हो उस ख़ाक-दाँ की बात करो
इश्क़ है बे-गुदाज़ क्यूँ हुस्न है बे-नियाज़ क्यूँ
ग़म के हाथों मिरे दिल पर जो समाँ गुज़रा है
वो है हैरत-फ़ज़ा-ए-चश्म-ए-मा'नी सब नज़ारों में
ख़िरद में मुब्तिला है 'सालिक' दीवाना बरसों से
जो उन्हें वफ़ा की सूझी तो न ज़ीस्त ने वफ़ा की
हाल-ए-दिल सुन के वो आज़ुर्दा हैं शायद उन को
हमारे डूबने के बाद उभरेंगे नए तारे
चराग़-ए-ज़िंदगी होगा फ़रोज़ाँ हम नहीं होंगे