तमाम उम्र ख़ुशी की तलाश में गुज़री
तमाम उम्र तरसते रहे ख़ुशी के लिए
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मिला न घर से निकल कर भी चैन ऐ 'ज़ाहिद'
जो सोते हैं नहीं कुछ ज़िक्र उन का वो तो सोते हैं
गया तो हुस्न न दीवार में न दर में था
हर एहतिमाम है दो दिन की ज़िंदगी के लिए
लोग चुन लें जिस की तहरीरें हवालों के लिए
क़फ़स से छुटने पे शाद थे हम कि लज़्ज़त-ए-ज़िंदगी मिलेगी
गिला किस से करें अग़्यार-ए-दिल-आज़ार कितने हैं
गुलशन में न हम होंगे तो फिर सोग हमारा
एक हो जाएँ तो बन सकते हैं ख़ुर्शीद-ए-मुबीं
ये नहीं कि तू ने भेजा ही नहीं पयाम कोई
नई सुब्ह चाहते हैं नई शाम चाहते हैं