नई सहर के हसीन सूरज तुझे ग़रीबों से वास्ता क्या
जहाँ उजाला है सीम-ओ-ज़र का वहीं तिरी रौशनी मिलेगी
Faiz Ahmad Faiz
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तमाम उम्र ख़ुशी की तलाश में गुज़री
गया तो हुस्न न दीवार में न दर में था
तुम चलो इस के साथ या न चलो
गुलशन में न हम होंगे तो फिर सोग हमारा
हर एहतिमाम है दो दिन की ज़िंदगी के लिए
गिला किस से करें अग़्यार-ए-दिल-आज़ार कितने हैं
नई सुब्ह चाहते हैं नई शाम चाहते हैं
ये नहीं कि तू ने भेजा ही नहीं पयाम कोई
मिला न घर से निकल कर भी चैन ऐ 'ज़ाहिद'
लोग चुन लें जिस की तहरीरें हवालों के लिए
जो सोते हैं नहीं कुछ ज़िक्र उन का वो तो सोते हैं
तज्दीद-ए-रिवायात-ए-कुहन करते रहेंगे